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Anbhaliha ( Chhattisgarhi Kavy Sangrah)

By: Chandrakant Khunte "Kranti"

Book By Chandrakant Khunte " Kranti"

Details :   

ISBN - 978-93-94807-63-1

Publisher - Authors Tree Publishing

Pages - 190, Language - HINDI

Price  - Rs.199/-  Only + Shipping

(Pre-Launch Sale Paperback)

Category -  Chhattisgarhi/Poem Book

Delivery Time - 6 to 9 working days

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सुतइ भीतरी मोती रथे अउ सुतइ रहिथे सागर के भक्कम भीतरी म। स्वाति नक्छत्र के पानी के बुँद ल अपन सरीर भीतर म धारण कर तोप लेथे। वो पानी के बुँद ल सुतइ ह सुग्घर मोती के रूप म देथे। जेकर सुघरइ ह तब अउ बाड़ जाथे, जब वो ह माला बनिके ककरो घेंच के शोभा बनथे।
मनखे मन के हिरदे ह घलो सागर ले कमती थोड़े न आय। जेकर गहराइ म शब्द रूपी मोती ह सुषुप्तावस्था रूप म माड़हे रहिथे। जब मनखे के अंतस सागर म उठने वाला भावना रूपी जोर के लहरा ह हिरदे तट म आके टकराथे त सुते रूप म माड़हे शब्द रूपी मोती ह घलो आके टकरा जाथे, अउ कबिता के रूप धर सुग्घर कबिता माला बन जाथे। जेकर सुघरइ ह तब अउ बाड़ जाथे जब ओमा जनहित,समाजहित , देशहित के संगे-संग सोसित, पीड़ित वर्ग के दुख-पीरा के बरनन,सामंतवादी,पुंजीवादी ताकत के अत्याचार के खिलाफ बिदरोह के स्वर घलो गुंजित होय लगथे।
वइसने दुख पीरा, बिदरोह अउ करांति के भाव ल ओत-प्रोत प्रगतिवादी बिचारधारा ले सराबोर भाई चंद्रकांत खुंटे के जनम 12 अक्टूबर सन् 1987 म छत्तीसगढ के जीवनदायनी महानदी संग ओकर सहायक शिवनाथ अऊ जोंक नदिया के संगम स्थल म बसे शबरी धाम ले लगभग आठ किलोमीटर दुरहिया सिवरीनरायन-बिलासपुर मेन रद्दा म बसे गाँव लोहर्सी के पावन भुंइया म होय रहिस हे।
फेर एक कबि के रूप म ओकर जनम तब होइस जब करोना काल के बेरा देश म लॉकडाउन लगिस त अपन गाँव,अपन घर कोती लहुटे बर आये-जाये के बेवस्था करे के गोहार लगावत-लगावत बनिहार मन थक गिन। त अपन जांगर अउ आत्मबल के भरोसा म निकल पड़िन सैकड़ों कोस के दुरी ल तय करे बर रेंगत। का लइका का सियान,का बुड़हुवा का जवान। मुड़ म बोझा,कोरा म लइका धरके न रथिया देखिन न बिहान,न तो सुरूज के आगी उगलत कड़कत मनझनिया के घाम,अंगरा कस लकलकावत रद्दा म रेंगे बर मजबुर होगे मजदुर-बनिहार मन।
रद्दा म रेंगत-रेंगत जेन दुख पीरा ल वो जुआर मजदुर मन गुजरत रहिन ओला देख-सुन के चन्द्रकांत खुंटे के अंतस सागर म करूना के अइसे लहरा उठिस कि आँखी कोती ल सुषुप्तावस्था रूप म माड़हे शब्द मोती ह छलक के पहिली कबिता 'मजदुर' के रूप धर बाहिर आगे –
" ऐ मजदूर ! तू पैदल चल,दूर मंजिल है कठिन राहें
फिर भी कर न कोई गल,खाने को नहीं कुछ तेरे पास
फिर भी थोड़ा कर सबर,कहीं रूक कहीं ठहर
मन को बना ले चंचल,जाना है मिलो दूर
लोहा सा बना तन को सबल
ऐ मजदूर ! तू.................।
कबिता के आघु पंक्ति म मजदुर मन ल सचेत करे के संगे-संग नजरअंदाज करोइय्या सासन ल घलो आड़े हाथ लेवत कहिथे –
"आँखे मूंद बैठी है शासन, पर तू आँखे खोल के चल ।
दुर्घटना न हो जाये कोई,इंतजार में है कुटुंब तेरी कल ।।"
तभे तो हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के छायावादी युग म छायावाद के चार खूँटा म से एक 'प्रकृति के सुकुमार' कबि सुमित्रानंदन पंत जी ह लिखिन हे कि -
"वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
निकलकर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान । "
जब मनखे के अंतस सागर म भावना रूपी लहरा ह सुनामी बनके हिरदे तट ल पार कर जाथे तब होथे कबि अउ कबिता के जनम। फेर कबिता के धार बोहाय लागिस।
बेरोजगार मन के बेरोजगारी के पीरा ह जुआर भाठा बन के चन्द्रकांत भाइ ल भीतर तक झकझोर कर देहिस अउ ओकर कलम ले निकलत आगी के आँच ह 'आगी' कबिता म दिखे लगिस -
"दुसर आगी बेरोजगारी के, घर भर के जिम्मेदारी के
गाँ रहँव के जावँव परदेस, कइसे धरँव परदेसी भेस।
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निजीकरण जाँगर टोरदिस, संविदा ह माथा फोरदिस
बेर-कुबेर भरती निकलत हे, उहु ह कछेरी घुमत हे ।
निजीकरण,संविदा भरती अउ कभु काल के कोनो बिभाग म भरती निकलिस त उहु ह अगास ल गिरिस अउ खजुर म अटकिस तेसना हो जाथे ।
ए देख के कि मनखे ह मनखे ल कइसे कुरसी,पद बर जुझवा के मार दारथे तेकर पीरा ल "दंगा के आगी" म बयान करत कइथे -
"दंगा के आगी कब बुझाही,न जाने कोन-कोन भुंजाही?
सुलगोइयाँ तो झारा-झारा हे,जरत मनखे कोन बचाही ।
नेता मन तब-तक जुझाही,कुरसी जब-तक नइ पाही?
पदबी पाय धर्रा रवन,उदंड-घुडंत पाँच साल दउडाही। "
त रिश्वतखोरी के बजार ह कइसे गरीबहा मन के लाहो लेथे तेला 'रिश्वतखोरी' कबिता म बेधड़क कइथे –
"सरकारी कोस ला हेरत हे,एसने मन पेरत हे
इमान-धरम ल भुलाके,जनता के घेंच रेंदत हे ।"
जब मइनसे ह मइनसे धरम ल भुलाके जात-धरम म पड़ जाथे,नीच-छुत समझ के आनी-बानी के दुक-तकलीफ दे-देके सोसन अउ अत्याचार करथे ओकर पीरा ह 'मनखे वो दिन मर जाथे' कबिता म देखे ल मिलथे -
"मनखे वो दिन मर जाथे
जब जात-धरम ल धर दारथे
अपन आप ल रोट्ठा समझ के
पर ल तरि अउ छुत समझथे
किसिम-किसिम के दुक दे-देके
सोसन से अपन घर सारथे।"
'चील अउ चिरई' कबिता के माध्यम ले बछर-बछर ले गरीब बंचित बर्ग के मइनसे मन ल हक-अधिकार कोती चेत करे बर कहत हे कि –
" रे चिरई ! कब तँय सुजान होबे?
कतका बेरा तक सुध-बुध खोबे
तोर हक ल आने मन झपटत हें
अब जाग फेर पाछु पछताइ रोबे।"
त हिन्दू कोड बिल नान के बबा साहेब ह नारी मन के गोड़ म बंधाए बेड़ी ल छोर अगास म उड़े बर पंख दिस तेला बखान करत "डॉ अंबेडकर: संविधान सम्माधान" कबिता म कहिथे -
"हिन्दू कोड बिल पास करा,नारी ल देहच सम्मान
परदा भीतरी ल निकाल,राष्ट्रपति बने के इस्थान ।"
किसान के बियथा ह जब भीतर ले कबि ल आहत करथे त ओकर पीरा के अहसास ल 'किसान के बेटा' म झलकथे  -
"मँय किसान के बेटा अँव
जम्मो जगत के पोसइय्या अँव
तभो निकलत हे मोरे परान रे
मँय बेटा गरीब किसान के।"
आघु पंक्ति म जांगर टोर मेहनत कर अन्न उपजोइय्या किसान के पीरा ह जब बाड़ जाथे अउ ओला ओकर मेहनत के सहीं मान नइ मिल पाये तब कथे –
"जिनिस बनोइय्या दाम लगाथे,
नानकुन-बड़का दुकान म बेचाथे।
मोर जिनिस के नइहे काबर मान रे,
मॅय बेटा गरिब किसान के.....।"
अइसे बात नइये कि चन्द्रकांत भाई के कलम ह केवल सोसन,अत्याचार,अंधबिश्वास,पाखण्ड के खिलाफ ही चले हे। ओकर कलम के सियाही ह प्रकृति बर मया  'चलव मिलके रुख लगाइ' म छलकथे –
"चलव मिल के रुख लगाइ,
भुंइयाँ के करके खोदाई।
कोला बारी मेड़ तरिया मा
जगा-जगा दु-चार जगाइ।।
बुद्ध के बिचार ल अपना के बुद्ध के बताये रद्दा म चले के जिनगी के डोंगा ल पार लगाए के बात करत कइथे –
"समता राही बुद्ध के, कर लव जमों बिचार
जेन रेंगही ए रद्दा मा, ओखर नइया पार।"
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ह अपन महाकाव्य 'साकेत' म लिखिन हे कि –
"निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी,
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि-बलिदानी।"
बादर ह अपन खुद के हित बर नइ बरसय,बल्कि दुसर के हित बर बरसथे। ठीक ओइ परकार ले ' क्रांति ' भाइ ह अपन कबिता के माध्यम ले चाहे वो हिन्दी म हो, के छत्तीसगढ़ी म दुनो म समान रूप ले बंचित, सोसित,पीड़ित,मजदुर अउ किसान मन बर आवाज़ उठावत हे। अत्याचार अउ सोसन करोइय्या,अंधबिश्वास,समाजिक कुरीति, रूढ़ीबाद उपर बजरहा चोंट करत हे अउ क्रांति के कलम चलावत 'अपन प्रथम कबिता संग्रह 'जलती मशाल' ल हाथ म धर के वो अंधियारी रद्दा म रेंगत हे। जेकर पाछु म ठाढ़े से अच्छा हे के ओकर हाथ थाम के संगे-संग चलना हे ताकि जलती मशाल के अंजोर ल असमानता के खाइ ह पटा के समतामूलक नव समाज के भारत बन सकय ।
प्रगतिवादी बिचारक क्रांतिकारी रचनाकार अउ कबि भाइ चंद्रकांत खुंटे 'क्रांति' ल ओकर दुसरा कबिता संग्रह अउ छत्तीसगढ़ी के पहिली कबिता संग्रह 'अनभलिहा' के प्रकाशन बर नंगत-नंगत सुभकामना हे अउ साहित्यागास म वोहर सुरूज बनके जगमगावत रहय ।

- डिकेश दिवाकर (शिक्षक/साहित्यकार)
जांजगीर-चांपा (छत्तीसगढ़)
दिनांक - 15/07/2023

 

 

 

 

 

 

 


About Author

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Chandrakant Khunte "Kranti"

नाम- चन्द्रकांत खुंटे 'क्रांति'
पिता- श्री हरनारायण खुंटे
माता- श्रीमती शशि खुंटे
जन्मतिथि- 12/10/1987
कार्तिक कृष्णा पंचमी, जन्म सोम शुभ याम।
उन्नीस सप्तशीति सन, भोर प्रहर निज धाम।।
शिक्षा- एम.ए. (हिंदी, संस्कृत, समाजशास्त्र, इतिहास, छत्तीसगढ़ी भाषा) बी.एड.
लक्ष्य- सहायक प्राध्यापक
         (हिंदी में नेट, सेट उत्तीर्ण)
पता- मु.पो.लोहर्सी, व्हाया-खरौद, तहसील-पामगढ़
        जिला- जांजगीर-चाम्पा (छत्तीसगढ़)
पिन-495556
रचनाएँ- जलती मशाल (हिंदी काव्य संग्रह) काव्य वाणी, छत्तीसगढ़ संपूर्ण दर्शन (साझा काव्य संग्रह)
सम्मान- गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड
मो. - 7771871576
ईमेल- chandrakantkhunte1576@gmail.com